- वर्षा भम्भाणी मिर्जा
स्थानीय विविधताओं के बावजूद भारत के सभी भागों की कला, दर्शन, साहित्य, संगीत में कुछ रहा है जो उन्हें एक दूसरे से बांधता रहा है। इसी तरह की एकता और निरंतरता हमारे संगीत में भी रही है। मध्य युग से लेकर आज तक हमारी संगीत शैलियां चाहे वे दक्षिण की हों या उत्तर की, शास्त्रीय संगीत हों, ग़ज़ल हों, भजन हों या हल्के फ़िल्मी संगीत की, सभी का अंतर स्वर हमारे प्राचीन संगीत का है।
भारत जोड़ो यात्रा राजस्थान में सोलह दिन चलने के बाद हरियाणा में प्रवेश कर चुकी है। इस बीच राजस्थान के नेता एकजुट होकर शांत दिखे और सियासत भी गलबहियां करती नज़र आई। लगता तो यही है कि यह चुप्पी यात्रा की वजह से ओढ़ी गई थी क्योंकि सियासत लड़ने-लड़ाने का शौक पुराना है। यात्रा के सौवें दिन जयपुर की पत्रकार वार्ता में एक सवाल के जवाब में राहुल गांधी जो कह गए वह ऐसी बात थी जो शायद इतने सीधे-सीधे तरीके से उन्होंने कभी नहीं कही थी। बेहद बड़ी बात बहुत शालीन शब्दों में। शब्द शालीन नहीं होते तो सत्ता के गलियारों में तूफान मचा जाते।
जो तीन शब्द 'हू दे आर' (वे कौन हैं) उन्होंने कहे वह देश में फैलती नफ़रत के खिलाफ़ अब तक के सबसे बड़े बयान में शामिल किए जा सकते हैं। यह किसी को कांग्रेस की बेबसी लग सकती है तो किसी को भाजपा को आईना दिखाने वाला भी। सच है कि भारत सदा से ही प्रेम और भाई-चारे में यकीन करने वाला देश रहा है। अलग-अलग कालखंड में अलग-अलग लकीरें खिंचती रहीं लेकिन हर भारतीय का मानस और कला के प्रति रुझान लगभग एक सा ही रहा है। यही इस पूरे भूभाग को एक धागे में भी पिरोता है जिसे हम भारत माता कहते हैं।
ऐसा भी नहीं है कि इस दौर में यह भाई-चारा पूरी तरह खंडित हो चुका है, पर ऐसा जरूर है कि एक नरेटिव स्थापित किया जा चुका है कि दो समुदायों के बीच गहरा संकट है और वे आपस में संघर्षरत हैं। इस नफरत को दिल के इसीजी ग्राफ की तरह उठाते-गिराते बयान समय-समय पर नेताओं की ओर से आते-जाते रहते हैं। नतीजतन देश अपनी सहज दौड़ में बाधा दौड़ का सामना करता है। हो यह भी रहा है कि भारत की विविधता और बहुलता में यकीन करने वाले बड़े हिस्से के भीतर बेचैनी है, छटपटाहट है। शायद ऐसे ही लोगों को राहुल गांधी ने जवाब देने की कोशिश की है कि आखिर ऐसा क्यों है और उनकी मजबूरी क्या है ।
उस वार्ता में एक प्रसिद्ध पत्रकार का सवाल था कि आपके हिसाब से यात्रा की सफलता के क्या मायने हैं और क्या आप इसकी सफलता को 2024 की चुनावी सफलता से जोड़कर भी देख रहे हैं, राहुल गांधी का जवाब था कि 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भाजपा को लगता है कि एक खास रास्ता है जिसे इस देश को अपनाना चाहिए। यह नफरत का रास्ता है, हिंसा का रास्ता है। यह वह रास्ता है जो दो भारत बनाने के लिए डिज़ाइन किया गया है। वे चाहते हैं कि एक भाषा, एक राज्य, एक आईडिया, एक संस्कृति, एक धर्म सब पर हावी हो और दूसरी तरफ एक दूसरी सोच यह है कि देश को बात करनी चाहिए, एक दूसरे को समझना चाहिए। आक्रामक नहीं, विनम्र होना चाहिए।
यह दूसरा विचार ही दरअसल भारत जोड़ो यात्रा है। यहां कोई किसी को मार नहीं रहा है, किसी के गिरने पर सब उसे प्यार से उसे उठाते हैं, यह नहीं पूछते कि तुम कौन हो, कहां से आए हो, किस जाति के हो। यही यात्रा का मकसद है। जो भी इसमें आता है उसे आदर और मान दिया जाता है। कई बार मैं सहमत नहीं होता लेकिन असहमति के लिए जगह होती है। आपको क्रूर होने की ज़रूरत नहीं है। यह यात्रा उन लोगों को समझने की है जिन्हें मैं प्यार करता हूं और अब तक की यह अनुभूति कमाल की रही है। भाजपा के चुनाव जीतने का एक जो बड़ा कारण है वह है खूब पैसा, संस्थाओं का इस्तेमाल, वे लोगों पर दबाव बनाते हैं, धमकी देते हैं। ये औजार हमें उपलब्ध नहीं हैं और हम ऐसा चाहते भी नहीं हैं क्योंकि ये संस्थाएं हमने बनाई है और ये जनता की हैं। ये आसान रास्ता है। हम मुश्किल बात करते हैं।
किसान की बातें, मज़दूर की बातें, युवाओं की बातें। और जो सबसे बड़ा कारण है कि भाजपा चुनाव जीतती है तो उसका कारण है कि उन्हें बहुत स्पष्ट हैं कि 'हू दे आर', वे कौन हैं? वे नफरत से भरे हैं। मैं उनसे सहमत नहीं, वे भारत को विभाजित करते हैं। उन्हें कोई दुविधा नहीं है कि वे कौन हैं। आप उनसे नफरत करते हैं और जवाब 'हां' है तो फिर आ जाओ! कोई दुविधा नहीं। जबकि हमारे लिए यह बड़ा जटिल है लेकिन जिस दिन कांग्रेस पार्टी यह समझ जाएगी कि वह कौन है, यानी 'हू इट इज़' और वह किसके लिए खड़ी है, तब वह चुनाव जीतने लगेगी उसे कोई नहीं हरा पाएगा।' बहरहाल ये सारी बातें राहुल गांधी ने जयपुर में अपनी पत्रकार वार्ता में कही।
इस जवाब ने शायद वह कह दिया है जो नहीं कहा जा रहा था। अपने पिछड़ने के कारणों पर इस तरह सोचने और भाजपा की नीति को बताते हुए लगता है कि कांग्रेस दबाव में तो है और इसीलिए बीच-बीच में वह नर्म हिंदुत्व की ओर जाती हुई भी दिखाई पड़ती है। जो रास्ता अभी पार्टी ने चुना है वह है तो इस देश का ही रास्ता, लेकिन मुश्किलों से भरा हुआ। इन दोनों पार्टी लाइन से अलग देश अब तक किस तरह से आगे बढ़ा है यह समझना भी सही होगा। विचारक और सामाजिक कार्यकर्ता सच्चिदानंद सिन्हा अपने एक लेख में बहुत पहले लिख चुके हैं कि भारत में राष्ट्र की परिकल्पना राज्यों की सीमा पर नहीं बल्कि भावनात्मक एकता पर टिकी रही है जिसमें राज्यों की सीमा पार कर भारतीयता का राष्ट्रबोध कायम रहा है।
इस भावनात्मक एकता का आधार रही है यहां की कला, दर्शन और साहित्य में व्याप्त एक विशिष्ट प्रेरणा की निरंतरता और सर्वव्यापकता। स्थानीय विविधताओं के बावजूद भारत के सभी भागों की कला, दर्शन, साहित्य, संगीत में कुछ रहा है जो उन्हें एक दूसरे से बांधता रहा है। इसी तरह की एकता और निरंतरता हमारे संगीत में भी रही है। मध्य युग से लेकर आज तक हमारी संगीत शैलियां चाहे वे दक्षिण की हों या उत्तर की, शास्त्रीय संगीत हों, ग़ज़ल हों, भजन हों या हल्के फ़िल्मी संगीत की, सभी का अंतर स्वर हमारे प्राचीन संगीत का है। इसका मतलब यह नहीं कि हमारी कलाओं पर बाहरी कलाओं का असर नहीं पड़ा। पड़ा लेकिन उसे पचा कर हमेशा से एक देसी स्वरूप दिया गया। मुग़ल काल में मिनिएचर चित्र कला में फ़ारसी में लिखी रामायण और महाभारत की प्रतियां तैयार हुईं। धर्म दर्शन में भी हमारी कुछ मूल स्थापनाएं रही हैं। जाति व्यवस्था की विषमता से भारतीय समाज भावनात्मक रूप से खंडित था।
चौदहवीं सदी में संत कवियों में फिर उस एकता के दार्शनिक सूत्र को जीवित किया। इसमें इस्लाम को मानने वाले सूफी संतों, रविदास और चोखामेला से लेकर संत ज्ञानेश्वर, कबीर, फरीद, नानक, मीरा, सूर और तुलसी सभी शामिल थे। भक्ति आंदोलन ने कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और मणिपुर से लेकर महाराष्ट्र तक सारे देश को एक भावनात्मक सूत्र में बांधा। उस समय भी जब राजकीय स्तर पर देश टूट रहा था और मुग़लों के आक्रमण हो रहे थे। यही वह असली एकात्मता बोध है जो सीमाओं से परे हमें एक सूत्र में बांधता है। हमारी एकता पर असली आघात तभी लगता है जब हम इन सबसे कटकर उन चीज़ों के पीछे पड़ जाते हैं जो बिलकुल बाहरी हैं। जब हम अपने आतंरिक भावों से कटते हैं तो उस अंतरंग संवाद सूत्र से भी कट जाते हैं जो हमें अपने देशवासियों से बांधता है
इस दौर में भी एक समय साहित्यकारों ने शायद ऐसे ही माहौल को भांपते हुए खुद के अवार्ड्स लौटाने की प्रक्रिया शुरू की थी जिसे बाद में 'अवार्ड वापसी गैंग' कहकर प्रचारित किया गया। शास्त्रीय गायक टीएम कृष्णा को दिल्ली में कार्यक्रम नहीं करने दिया गया। फिल्मों का विरोध भी एक ख़ास नज़रिये और सुनियोजित तरीकों से होने लगा। फिल्म 'जोधा अकबर' और 'पद्मावत' को राजस्थान में रिलीज़ नहीं होने दिया गया। कुछ कलाकारों का भी विरोध हुआ। उनके नाम के आधार पर और खास फ़िल्मों का विशेष तौर पर प्रचार भी हुआ।
यह सब अब इतना ज्यादा और आम हो गया है कि अब देश को आदत सी पड़ गई है। क्या ये सत्ताधारी दल कभी इतिहास से प्रेरणा ले पाते हैं? मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब के पास शक्तिशाली सेना थी। अनेक गुण भी थे लेकिन जिस मुग़ल साम्राज्य का सबसे ज़्यादा विस्तार उसके जीवन में हुआ, वही बिखरने भी लगा। सत्ता की भूख और असहिष्णुता के कारण उसका साम्राज्य टूटने लगा।
चारों ओर विद्रोह होने लगे। लोग शासन के दबाव से इतने त्रस्त थे कि मुक्त होने के लिए बेचैन हो गए। औरंगज़ेब के मरते-मरते मुग़ल साम्राज्य का विघटन शुरू हो गया। इसके बाद अंग्रेजी ताकत की घुसपैठ शुरू हो गई। इससे ठीक उलट उदाहरण सम्राट अशोक का है जिसने कलिंग विजय के बाद प्रेम और दया के बल पर राज करने का संकल्प लिया और सम्राट की मृत्यु के समय का मगध साम्राज्य भारत का सबसे विशाल और उदार साम्राज्य रहा।
कितनी सादी बात है कि प्रेम और भाई-चारा अगर शासन में हो तो जनता खुश रहेगी और देश के तमाम विकास कार्यों में भी उसकी भागीदारी होगी। राज को इतना जटिल क्योंकर होना चाहिए? यह विडम्बना ही है कि सत्ता का रास्ता 'हू दे आर' से होकर जा रहा है जिसकी तरफ भारत जोड़ो के यात्री ने इशारा भी किया। देश तो चाहता है कि उसे ऐसा नेता मिले जो भाई-चारे की बात के साथ उसे ऐसे नतीजे देने वाला भी हो जो उसकी ज़िंदगी को आसान करे। सही है नेता मनोज झा की बात कि गरीब की थाली में रोटी जीडीपी के आंकड़े देखकर नहीं आती है।
फ़िलहाल तो हालत ऐसे हैं कि जो सरकार में हैं वे नतीजे देने की ख़्वाहिश तो रखते हैं, गति भी है लेकिन ग़ुरबत का कोई हल नहीं निकाल पा रहे और घृणा की बुनियाद पर जीत हासिल करना चाहते हैं। मूल आधार नफ़रत का है। संस्थाओं को अपने हिसाब से चलाने का है जो भाई-चारे और प्रेम के पैरोकार हैं उनमें गति की कमी है। देश को दोनों की दरकार है- प्रगति और प्रेम। कैसे मिलेगा?
(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं)